Sunday, November 14, 2021

 जनजातीय गौरव दिवस 15 नवम्बर के लिए विशेष

बिरसा मुंंडा के सपनों को सच करता मध्यप्रदेश 

मनोज कुमार

मध्यप्रदेश के इतिहास में एक और दिन 15 नवम्बर ऐतिहासिक दिन के रूप में लिखा जाएगा जब जनजातीय गौरव दिवस के रूप में बिरसा मुंडा की जयंती का जयघोष होगा। ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश हमेशा से बड़े दिल का रहा है और रांची के इस महान वीर सपूत बिरसा की जयंती मध्यप्रदेश की भूमि पर आयोजित है। यह एक महज आयोजन नहीं है बल्कि इस बात का संदेश है कि स्वाधीनता संग्राम के लिए सर्वस्व त्याग करने वाले वीर योद्धा किसी क्षेत्र विशेष के ना होकर सम्पूर्ण भारत वर्ष का गौरव हैं। मध्यप्रदेश एक नजीर बन रहा है कि एक राष्ट्र की संकल्पना को कैसे व्यवहार में लाया जाए। यह अवसर भी माकूल है जब हम स्वाधीनता संग्राम के 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब इन वीर योद्धाओं का स्मरण समाज का दायित्व बनता है। इन वीरों के स्मरण से उनके कार्यों और बलिदान की जो राष्ट्रीय भावना थी, उससे युवा पीढ़ी को अवगत कराना है। यह मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात है कि बिरसा मुंंंडा की जयंती मनाने का अवसर हमें मिल रहा है।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों को चने चबाने वाले वीर नायकों से मध्यप्रदेश का स्वर्णिम इतिहास लिखा गया है। जिन जनजातीय वीर योद्धाओं का हम स्मरण करते हैं उनमें भीमा नायक, टंट्या मामा, खाज्या नायक, संग्राम शाह, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, रानी दुर्गावती, बादल भोई, राजा भभूत सिंह, रघुनाथ मंडलोई भिलाला, राजा ढिल्लन शाह गोंड, राजा गंगाधर गोंड, सरदार विष्णुसिंह उइके जैसे अनेक चिंहित नाम हैं। लेकिन सत्य यह भी है कि अनेक ऐसे नाम हैं जिनका उल्लेख कभी इतिहास में नहीं किया गया। स्वाधीनता संग्राम के 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर इतिहास का पुर्नलेखन किया जा रहा है। अब तक जो इतिहास लिखा गया, उसमें स्वतंत्रता संग्राम के अनेक बहुमूल्य घटनाओंं और नामों को जानबूझकर विलोपित कर दिया गया। इतिहास लेखन की इस नवीन प्रकल्प को प्रभावी बनाने के लिए जनजातीय समाज के वीर योद्धाओं का स्मरण करना आवश्यक हो जाता है। यह वही अवसर है जब दबा दिये गए, छिपा दिए गए तथ्य सामने आते हैं और हम इतिहास को नए सिरे से लिखते हैं।

मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह सरकार ने जनजातीय समाज के लिए ऐसे अनेक कार्य किये हैं जो उन्हें मुख्यधारा में लाते हैं। पूर्ववर्ती सरकारों ने सुनियोजित ढंग से जनजातीय समाज को कभी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बनने दिया। उन्हें इस बात का भय था कि जनजातीय समाज शिक्षित हो जाएगा, आत्मनिर्भर हो जाएगा तो उसके भीतर अपने अधिकारों के लिए लडऩे की शक्ति आ जाएगी। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान इस बात को बेहतर ढंग से जानते थे लेकिन उन्हें अपनी सरकार की नीतियों पर भरोसा है और उनका मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको बराबर का अधिकार मिलना चाहिए। इस दृष्टि के साथ जनजातीय समाज के लिए ना केवल शिक्षा की व्यवस्था की बल्कि उनके लिए रोजगार के बेहतर अवसर मुहय्या कराया। जिन जनजातीय बच्चों को स्कूल जाना नसीब नहीं था, वे बच्चे आज विदेश में पढ़ रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा जिनके लिए कभी नहीं थी और थी भी तो बेहद औपचारिक वे बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल के साथ एमबीए जैसे विषयों में दक्षता हासिल कर अपनी नई दुनिया गढ़ रहे हैं। जनजाति समाज पर प्रकृति का आशीर्वाद है। प्रकृति से सीधे जुड़े होने के कारण उनके भीतर नैसर्गिक कला संसार बसा हुआ है। शिवराजसिंह सरकार ने इसे पहचाना और देश-दुनिया का मंच दिया जहां आज ना वे अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं बल्कि आय का उत्तम स्रोत भी उन्हें मिल गया है।

वीर योद्धा बिरसा मुंडा की कहानी पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व भी जनजाति समाज सूदखोरों के चंगुल में फंसा था। आज भी हालात में बहुत कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। सात दशक की यात्रा का विवेचन करें तो स्पष्ट हो जाता है कि मध्यप्रदेश की जनजाति समुदाय को सूदखोरों से मुक्त करने के लिए कोई गंभीर और प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह सरकार ने इस दिशा में प्रभावी पहल की है। मध्यप्रदेश सरकार का क्रांतिकारी फैसला साहूकारों से जनजाति समुदाय को मुक्त कराना है तथा ऋणमुक्त कर उन्हें अनावश्यक तनाव से मुक्ति दिलाना भी सरकार की प्राथमिकता में है। मध्यप्रदेश अनुसूचित जनजाति साहूकार विनियम 1972 को और अधिक प्रभावी बनाकर साहूकारों के लिए लायसेंस लेना अनिवार्य करने के साथ ब्याज की राशि निर्धारित की जा चुकी है और निर्धारित ब्याज राशि से अधिक लेने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही की जाएगी।

पूर्ववर्ती सरकारों ने जनजातीय समाज को आगे आने नहीं दिया। उनकी कला-कौशल को समाज के समक्ष नहीं रखा जिसकी वजह से हमेशा से आत्मनिर्भर रहा जनजातीय समुदाय स्वयं को निरीह महसूस करने लगा था। बीते डेढ़ दशक में मध्यप्रदेश सरकार ने इस समाज के दर्द को समझा और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई नए प्रकल्प तैयार किये। मोदी सरकार के साथ कदमताल करती मध्यप्रदेश सरकार ने लोकल से वोकल और एक जिला, एक प्रोडक्ट पर कार्य कर इन जनजातियों को आगे बढऩे का अवसर दिया। मध्यप्रदेश के जनजाति समूह खेती करने के साथ वनोपज संग्रह, पशुपालन, मत्स्य पालन, हस्त कला यथा बांस शिल्प, काष्ठ शिल्प, मृदा शिल्प एवं धातु शिल्प का कार्य करते हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने ऐलान किया है कि देवारण्य योजना के अंतर्गत वनोत्पाद और वन औषधि को बढ़ावा दिया जाएगा एवं वन उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीदा जाएगा।  जनजातीय समुदाय की कला कौशल को मध्यप्रदेश सरकार ने ना केवल दुनिया को बताया बल्कि बाजार भी उपलब्ध कराया ताकि उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके। 

मध्यप्रदेश में जनजातीय समाज की बेहतरी के लिए जो कार्य किये जा रहे हैं, वह बिरसा मुंडा के स्वप्र को सच करने की कोशिश है। योद्धा बिरसा मुंडा भी जनजाति समाज को शोषणमुक्त देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि समाज में समरसता हो और जनजाति समाज को मुख्यधारा में स्थान मिले। रोटी और रोजगार के साथ शिक्षा का बेहतर विकल्प मिले। युवा शिक्षित और आत्मनिर्भर हों और उनके मन में देशप्रेम का भाव हो। मध्यप्रदेश बिरसा मुंडा के सपनों को सच कर रहा है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान सबका साथ, सबका विकास के साथ हमारा मध्यप्रदेश गढ़ रहे हैं। बिरसा मुंडा की जयंती के माध्यम से मध्यप्रदेश में जनजातीय समाज की बेहतरी के लिए किये जा रहे कार्यों से पूरा देश परिचित हो सकेगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)

Monday, May 3, 2021

बेमानी है प्रेस फ्रीडम की बातें

मनोज कुमार

तीन दशक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने 3 मई को विश्व प्रेस फ्रीडम डे मनाने का ऐलान किया था. तब से लेकर आज तक हम इसे पत्थर की लकीर मानकर चल रहे हैं. इन तीन दशकों में क्या कुछ हुआ, इसकी मीमांसा हमने नहीं की. पूरी दुनिया में पत्रकार बेहाल हैं और प्रेस बंधक होता चला जा रहा है. खासतौर पर जब भारत की चर्चा करते हैं तो प्रेस फ्रीडम डे बेमानी और बेकार का ढकोसला लगता है. दशकवार जब भारत में पत्रकारिता पर नजर डालें तो स्थिति खराब नहीं बल्कि डरावना लगता है. लेकिन सलाम कीजिए हम पत्रकारों की साहस का कि इतनी बुरी स्थिति के बाद भी हम डटे हुए हैं. हम पत्रकार से मीडिया में नहीं बदल पाये इसलिए हमारे साहस को चुनौती तो मिल रही है लेकिन हमें खत्म करने की साजिश हमेशा से विफल होती रही है. इस एक दिन के उत्सवी आयोजन से केवल हम संतोष कर सकते हैं लेकिन फ्रीडम तो कब का खत्म हो चुका है बस समाज की पीड़ा खत्म करने का जज्बा ही हमें जिंदा रखे हुए है.

भारत में पत्रकारिता के पतन की शुरूआत और उसकी स्वतंत्रता खत्म करने का सिलसिला साल 1975 में ही शुरू हो गया था. आपातकाल के दरम्यान जो कुछ घटा और जो कुछ हुआ, वह कई बार बताया जा चुका है. उसे दोहराने का अर्थ समय और स्पेस खराब करना है. लेकिन एक सच यह है कि पत्रकारिता इसके बाद से दो हिस्सों में बंटती चली गई. लोगों ने मिशन से बाहर आकर इसे प्रोफेशन मान लिया. अखबारों और पत्रिकाओं की संख्या मे इजाफा होना शुरू हो गया. कल तक जिनके लिए किसी स्कूल में शिक्षक बन जाना आसान था, उन्हें यह भी आसान लगा कि पत्रकार बन जाओ. ना शिक्षा की पूछ-परख और ना ही अनुभव का कोई लेखा-जोखा. मैं कुछ ऐसे पत्रकारों को जानता हंू जो शीर्ष संस्थाओं के प्रमुख हैं लेकिन जमीनी पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं रहा. डिग्री हासिल की और सुविधाजनक ढंग से बड़े पदों पर आसीन हो गए. नयी पीढ़ी उन्हें प्रखर पत्रकार और आचार्य संबोधित करने लगे. मिश्री घुली बातों से वे चहेते बन गए और आज जिस बात का हम रोना रो रहे हैं, वह इन्हीं महानुभावों की वजह से उत्पन्न हुआ है. इसमें तथाकथित प्रखर पत्रकार और आचार्य बन चुके रसमलाई में लिपटे लोगों की गलती तो थोड़ी है. इससे बड़ी गलती उन दिग्गज लोगों की है जो जानते हुए भी उन्हें आगे बढ़ाने में लग रहे.

बेहिसाब पत्रकारिता के शिक्षण संस्थान शुरू हो रहे हैं. यहां पढऩे वाले विद्यार्थियों को पत्रकारिता को छोडक़र शेष सारी विधायें सिखायी जाती हैं. डिग्री और बेहतर नौकरी के साथ सुविधाजनक जिंदगी की चाहत लिए पत्रकारिता के नौनिहाल सवाल करना भी नहीं जानते हैं. संवाद और अध्ययन से उनकी कोसों दूरी है. कभी किसी पर इनकी खबर का केवल इंट्रों देख लीजिए तो माथा पीट लेंगे. पू्रफ रीडिंग जैसी बुनियादी सबक कभी इन्हें सिखाया नहीं गया. जुम्मा-जुम्मा चार साल की पत्रकारिता और वरिष्ठ पत्रकार का खिताब. इन सालों में एक खबर ऐसी नहीं कि जो छाप छोड़ गई हो. हालांकि निराशाजनक स्थिति के बावजूद मैं कह सकता हूं कि कुछेक विद्यार्थी हैं जो पत्रकारिता करने आये थे और पत्रकारिता कर रहे हैं. पत्रकारिता शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के दौरान उन्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं दिया गया कि पत्रकारिता और मीडिया क्या है? आज पत्रकारिता दिवस है और सोशल मीडिया में निश्चित रूप से मीडिया को शुभकामनाएं दी जा रही होंगी. प्रेस की स्वतंत्रता के मायने यह नहीं है कि आपको लिखने की आजादी है. प्रेस स्वतंत्रता का अर्थ है आप सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता करें. पेजथ्री की पत्रकारिता से बाहर आकर एक बार विद्यार्थी, पराडकर, गांधी और तिलक को पढ़ें. मैं यह भी नहीं कहता कि आधुनिक संचार माध्यमों में वह सबकुछ संभव है जो पराधीन भारत की पत्रकारिता में था लेकिन जैसे सृृष्टि ने मां बनाया तो सदियां बदल जाने के बाद भी मां ही है, वैसे ही माध्यम बदल जाए, विकास हो जाए लेकिन पत्रकारिता की आत्मा जिंदा रहना चाहिए. पत्रकारिता हमारी अस्मिता है. 

जब हम प्रेस स्वतंत्रता की बात करते हैं तो इन दिनों कोरोना काल में जो कुछ घट रहा है, वह हमें आईना दिखाने के लिए बेहतर है. देशभर में पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों को अर्जियां दी जा रही हैं. फिर राजशाही की तरह सरकार हम पर एहसान कर कहती है कि फलां सरकार ने पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मान लिया है. समाज में शुचिता और सकरात्मकता का भाव उत्पन्न करने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की. सरकार के प्रयासों को लोगों तक पहुंचाने की अपेक्षा पत्रकारिता से. लेकिन पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों से बात करना होगी. क्या सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है कि वह हमारा ध्यान रखे? इस स्थिति के लिए भी हम दोषी हैं. रोहित सरदाना की मृत्यु हो जाती है तो हम खेमें में बंट जाते हैं. हम भूल जाते हैं कि वो भी एक पत्रकार था और हम सब भी. यह भी सच है कि जिस अखबार, पत्रिका या चैनल में काम करेेंगे, उसकी नीति के अनुरूप बोलना होगा. यह बंधन सबके लिए है. हमारी आपस की बैर और खेमेबाजी राजनीतिक दलों के लिए सुविधा पैदा करती है. आज सचमुच में प्रेस स्वतंत्र होता तो सरकारें आगे आकर फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए मजबूर होती लेकिन दुर्भाग्य से हम खेमेबाज पत्रकार हैं. इसलिए सब बातें बेमानी है.

उम्मीद कीजिए और भरोसा रखिए कि देश के कोने कोने से कोराना के चलते जो पत्रकार जान गंवा रहे हैं, उनसे हम सीख लें. एक साथ खड़े हो जाएं. जिस दिन हम यह साहस कर पाएंगे हर प्रबंधन को आगे आकर वेतन आयोग की शर्ते मानना होगी और सरकारों को भी. लेकिन इसके लिए इंतजार करना होगा कि क्योंकि एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो हमें इसमें या उसमें बांट रही है.   


Sunday, December 6, 2015

सहिष्णुता-असहिष्णुता का विलाप


मनोज कुमार
 सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता का यह मुद्दा उन लोगों का है जिनके पेट भरे हुए हैं। जो दिन-प्रतिदिन टेलीविजन के पर्दे पर या अखबार और पत्रिकाओं के पन्ने पर पक्ष लेते हैं दिखते हैं अथवा देश और सरकार को कोसते हैं। ये वही आमिर खान हैं जिन्होंने कभी भोपाल में कहा था कि उनकी मां उनसे कहती हैं कि बेटा, चार पैसा कमा ले। बेचारे गरीब आमिर को इस बार उनकी पत्नी कहती हैं कि देश असहिष्णु हो चला है, चलो देश छोड़ देते हैं। आमिर अपनी निजी बातें सार्वजनिक मंच से शेयर करते हैं. आमिर का यह विलाप देश की चिंता में नहीं है, यह अपने गिरते हुए फिल्मी बाजार को सम्हालने की कोशिश हैं। देश आमिर से पूछना चाहता है कि आमिर तुम स्टार नहीं होते तो यह बातें किस सार्वजनिक मंच से कहने का अवसर मिलता? कौन तुम्हें बोलने का मौका देता और मिल भी जाता तो कौन सुनता? चलो, आमिर कुछ देर के लिए मान भी लेते हैं कि सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता के मुद्दे से तुम जख्मी हो और पत्नी की बात देशवासियों को अपना परिवार मानकर उनसे शेयर कर रहे हो। अब सवाल यह है कि देश में लगभग हर राज्य में किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो क्या एक देशभक्त आमिर का कर्तव्य नहीं है कि वह किसानों के बीच जाए और उनके दर्द बांटे, देशवासियों से किसानों की पीड़ा शेयर करे और उनकी मदद के लिए कोई उपाय तलाशे। यह शायद तुम नहीं करोगे. तुम अपनी ड्यूटी और राईट्स भूल जाते हो क्योंकि किसानों की पीड़ा हरने का काम तो सरकार और तंत्र का है, एक सेलिबे्रटी का तो है नहीं।  
आमिर एक बात और बता दूं। मेरे और मुझ जैसे लाखों लोग इस देश में होंगे जिनके घरों में मां, पत्नी, बहन, भाभी, चाची और मौसी के साथ साथ बच्चे भी कई मुद्दों पर बात करते हैं लेकिन इनके दिमाग में गलती से देश तो क्या शहर छोडऩे का ख्याल भी नहीं आता है। ऐसा भी नहीं है कि जहां हम सब लोग रहते हैं, वहां परेशानी नहीं है लेकिन परेशानी से भागने के बजाय हम उस समस्या का हल ढूंढऩा जानते हैं। हमें अपना राइट्स भी पता है और ड्यूटी भी क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। हम अपनी निजी बातें सार्वजनिक रूप से शेयर कर अपना और समाज का मजाक नहीं बनाते हैं।  आमिर ध्यान रखो, यह भारत है और भारत देश कभी सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता का विलाप नहीं करता है। इस देश ने 1947 से लेकर 2015 के इस दौर तक अनेक बदलाव देखे हैं लेकिन कभी किसी ने देश छोडऩे की बात नहीं की।  इस देश का आम आदमी देश तो दूर, अपना शहर और अपना मोहल्ला  तक नहीं छोड़ना चाहता है. पुश्तैनी मकान की परम्परा इस बात को साबित करती है.  
आमिर के इस विलाप को हवा देते हुए एक दूसरा सेलिब्रिटी शाहरूख खान इस बयान के खिलाफ अपना बयान दे डालता है। इसका चरित्र भी आमिर से अलग नहीं है। उम्रदराज होते इन अभिनेताओं को पता है कि जल्द ही बाजार इन्हें खारिज करने जा रहा है तब यह इस तरह की बातें बोल कर खुद का मार्केट बनाये रखने की जुगत में लग जाते हैं। सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता इनके लिए कोई मुद्दा नहीं है। इनका मुद्दा है करोड़ों की लागत से बनी फिल्में पीटे नहीं और करोड़ों कमा ले जाएं। शाहरूख जो सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता की बात कर रहे हैं, वो याद कर लें कि खेल के मैदान में कितने सहिष्णु रहे हैं ?  दरअसल इनका काम है लोगों का मनोरंजन करना, वही करें और देश की चिंता छोड़ दे. चिंता करना भी है तो एक भारतीय बनकर करें, हीरो बनकर नहीं.    
अनुपम खेर को भी आप इस लाइन से बाहर नहीं कर सकते हैं क्योंकि इस फिल्मी बाजार का वो भी हिस्सा है। वो भी चाहता है कि सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता के मुद्दे के बहाने कुछ नाम पक्का कर लिया जाए तो कभी न कभी राजदरबार में प्रवेश का अवसर मिले। यह और बात है कि वो मीडिया से बात करते समय इससे सहजता से ना कर जाते हे. बावजूद अचानक से वे संवेदनशील हो जाते हैं और उन्हें अपनी ड्यूटी और राईट्स दोनों समझ आने लगता है. सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता पर जुलूस-जलसा निकालने लगते हैं. जिन कश्मीरी पंडितो की पीड़ा का वे इजहार कर रहे है, दुख जता रहे है, क्या कभी उनके बारे में कभी कुछ किया? कभी उनके हक़ के लिए लड़ाई लड़ी? शायद नहीं। केवल टेलीविज़न के परदे पर ही उनका दुख दिखता है. काश! सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता से बाहर आकर देशवासियों के पक्ष में अनुपम खड़े हो पाते। हम उम्मीद कर रहे है कि "सारांश " का वह बूढ़ा बाप परदे से बाहर आकर अपने चरित्र को साकार करेगा।
सेलिब्रेटियों की सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता पर चिंता महज मगरमच्छ के आंसू हैं। मेरी सहमति उनसे भी है जो लगातार चीख-चीख कर असहिष्णुता का विलाप कर रहे है. एक आम आदमी का लगातार मंहगाई से टूटने को क्या कहेंगे? अपराधों से जो डरा हुआ है, उसकी चिंता कौन करेगा? आप सब बुद्दिजीवी हैं, आप  सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता को समझते है लेकिन मेरे जैसा आम आदमी इन बातों को बहुत नहीं समझता है. मेरा मानना है कि आप सब हमारे बीच आये,  सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता के बारे में हमें बताये। आम आदमी जानना चाहेगा कि मंहगाई, बेरोजगारी, अपराध, असुरक्षा से बड़ा असहिष्णुता का कोन सा मुद्दा है। उसकी रूचि यह भी जानने में होगी कि जो लोग असहिष्णुता के मुद्दे पर मोर्चे पर है, क्या उन लोगो को आम आदमी के मुद्दे पर सड़क पर नहीं आना चाहिए?  भूखा पेट केवल रोटी ना मिलने पर असहिष्णु होता है, भरा पेट इस बात को क्या जाने और समझे। यह वो  लोग है जिन्होंने कभी रेल की जनरल बोगी  में सफर नहीं किया और ना ही सरकारी अस्पताल में इलाज कराया। इन्हे तो इस बात का भी इल्म नहीं कि सरकारी स्कूल बच्चों को पढ़ाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं.   
दुर्भाग्य की बात है कि सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता का विलाप करने वाले लोगों ने अपने ही एक और हीरा जैसा कलाकार नाना पाटेकर से कुछ नहीं सीखा? नाना महाराष्ट्र के किसानों के बीच गये और अखबार या टेलीविजन में खुद को स्टार बताने के बजाय उनके बीच जाकर अपनी हैसियत से ज्यादा मदद कर आये। ऐसे और भी लोग है, जो सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता को लेकर बेकरार नहीं हैं बल्कि अपनी जवाबदारी समझ कर मदद में जुटे हुए है.  क्या दिल पर हाथ रखकर सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता के मुद्दे पर देश को बदनाम करने वाले आमिर, अनुपम और शाहरूख बता सकते हैं कि ऐसा कोई पराक्रम उन्होंने कभी किया हो? शायद नहीं।
माफ करना मेरे वो दोस्त, जिनकी मोहब्बत आमिर, अनुपम और शाहरूख से होगी, उन्हें यह बात नागवार गुजरे लेकिन मुझे पता है कि आप मेरी बातों से सहमत ना हों लेकिन असहमति की गुंजाईश ही मैंने कहां छोड़ी है। सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता का प्राथमिक तौर पर  मुद्दा बेमानी लगता है क्योंकि जिस देश में दाल के भाव 2सौ रुपये किलो बिक रहा हो, प्याज और आलू खरीदने की आम आदमी की ताकत जवाब दे रही हो, वहां सहिष्णुता अथवा असहिष्णुता का मुद्दा केवल सियासी और बौद्धिक जुगाली है। एकबारगी यह मान भी लिया जाए कि सरकार का व्यवहार असहिष्णु है तो उसके खिलाफ आवाज उठनी चाहिए लेकिन इसके पहले आम आदमी को उसकी हैसियत जीने का हक नहीं मिलना चाहिए?  यह देश भारत है जिसने अंग्रेजों को भगा कर दम लिया, उसके लिये असहिष्णुता कोई बडा मुद्दा नहीं है. यह भी नहीं भूलना चाहिये कि इसी देश ने आपतकाल को सिरे से खारिज कर दिया था. जो लोग असहिष्णु है, उन्हें चुनाव में जनता बाहर का दरवाज़ा दिखा देती है. 

Thursday, March 5, 2015

एक धर्म की बिटिया

मनोज कुमार
बिटिया हो जाना ही किसी बेटी का धर्म है. बिटिया का एक ही धर्म होता है बिटिया हो जाना. बिटिया का विभिन्न धर्म नहीं होता, उसकी कोई जात या वर्ग भी नहीं होता, वह एक मायने में अमीर या गरीब भी नहीं होती है. बिटिया, सिर्फ और सिर्फ बिटिया ही होती है. हिन्दू परिवारों में पैदा हुई बेटियों को भी पराया होना होता है तो मुस्लिम, सिक्ख और इसाई परिवार भी इसी परम्परा का निर्वाह करते हैं. बेटियों को लेकर इनमें से किसी का भी धर्म और वर्ग का चरित्र अलग नहीं है. बिटिया को लेकर सबकी दृष्टि एक सी है और वह दृष्टि है बिटिया पराया धन है. यहां तक कि बिटिया को लेकर आलीशान कोठी में रहने वाले धन्ना सेठ जो सोचता है, वही सोच एक आम आदमी के मन की भी होती है. संसार के निर्माण के साथ ही बेटी चीख रही है, चिल्ला रही है कि वह एक वस्तु नहीं है. वह धन भी नहीं है और न ही सम्पत्ति लेकिन परम्परा के खूंटे से बंधी बिटिया एक सोची-समझी साजिश के तहत पराया धन बना दी गई. 
अभी रेल का सफर करते समय इस बात का अनुभव हुआ कि बिटिया का कोई धर्म नहीं होता है. मैंने 14 घंटे के सफर में इस बात की तलाश करता रहा कि किसी एक बिटिया का तो धर्म पता चल सके लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. बिटिया को पराये घर जाना है तो उसे घर का हर काम सीखना होगा, भाई और पिता को खिलाने के बाद खाना ही उसका धर्म है. पिता और भाई के खाने के बाद बचा हुआ वह खाना खाती है और कई बार तो उनके हिस्से के बचे और बासी खाना बिटिया के नसीब में आता है. पीहर से सीखा और ससुराल में यह उसकी नियती बन जाती है. परदे में रहना, चुप रहना और दूसरों की खुशी में हंसना-मुस्कराने वाली बिटिया सुघड़ है, संस्कारी है. इस संस्कारी और एक धर्म का निर्वाह करने वाली बिटिया का जज्बात दहेज के लिये जला देने वालों के लिये कोई मोल नहीं रखता है, यह भी दिल दुखा देने वाली बात है कि एक बलात्कारी बिटिया का धर्म नहीं पूछता. उसके लिये उसका शरीर ही धर्म होता है. हां, इतना जरूर होता है कि सियासी फायदे के लिये कभी-कभार बलात्कार की शिकार बिटिया की जाती चिन्हित की जाती है. यह चिनहारी भी उस लाभ के लिये कि यह दिखाया जा सके कि दुष्कर्म की शिकार बिटिया भी किसी धर्म से आती है. संसार भर में बिटिया के लिये एक ही धर्म है कि उसका बिटिया हो जाना.
    बिटिया को पराया कहने पर मुझे आपत्ति है लेकिन उसे धन कहने पर थोड़ी कम आपत्ति क्योंकि बिटिया का तो कोई मोल है लेकिन बेटों का क्या करें? बेटों का तो अपना धर्म है, वह अमीर भी है और गरीब भी. उसके साथ वर्ग और वह जाति के जंजाल में भी उलझा हुआ है. हिन्दू धर्म के लिये बेटा होने का अर्थ घर का चिराग है तो मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई भी इसी तरह सोचते हैं. बेटा उनके वंश को बढ़ाता है इसलिये वह पराया नहीं होता है लेकिन उसे कभी पराया न सही, स्वयं के घर का धन भी कहला नहीं पाया. बेटा न तो पराया होता है और न कभी धन बन पाया. ऐसा क्यों नहीं होता, इस पर भी जब मैंने सोचा तो लगा कि बेटे की हैसियत दिखती तो बड़ी है लेकिन हकीकत में उसकी औकात दो कौड़ी की होती है. जीवन भर वह पराये धन की खाता है. इस बारे में हमारे एक मित्रवत रिश्तेदार भाई अवधेश कहते हंै कि आप तो अधिकतम 25 साल में बरी हो जाएंगे, शायद इससे ज्यादा एक या दो वर्ष में. बिटिया का हाथ पीला करेंगे और निश्चिंत हो जाएंगे लेकिन हमारे लिये तो बेटा जीवन भर की घंटी की बना हुआ है. पहले पालो, शिक्षा दिलाओ, फिर नौकरी की चिंता करो और बाद में बेटे का ब्याह करो. थोड़े साल बाद मां-बाप पराये हो जाते हैं. मां-बाप समाज के नियमों के चलते बिटिया को पराया कर देते हैं और बेटा मां-बाप को अपने लिये पराया कर देता है. तमाम विकास की बातों, महिलाओं की हिस्सेदारी की बाते और जाने क्या क्या जतन किये गये लेकिन जब परिणाम जांचा गया तो पाया कि जतन तो बिटिया के नाम पर था लेकिन फैसला बेटे के पक्ष में हो गया. न तो इन 14 घंटों के सफर में मैं बिटिया का धर्म तलाश कर पाया और न इस पचास साल की उम्र में बिटिया को उसकी पहचान दिला पाया. जो लोग इसे पढ़ रहे होंगे तो उनसे मेरा आग्रह यही होगा कि जब समय मिले तो बिटिया के हक की तलाश करें, मदद करें और हो सके तो बिटियाओं के लिये उनका अपना धर्म तलाश कर सकें जहां वे स्वतंत्र हों, उनकी अपनी पहचान हो. 

Friday, July 25, 2014

छोटी ही रहना चाहती हूं पापा...



-मनोज कुमार 
अखबार पढ़ते हुये अचानक नजर पड़ी कि कुछ दिनों बाद फादर्स डे है। मन में जिज्ञासा आयी और लगा कि अपनी बिटिया से पूछूं कि वो इस फादर्स डे पर क्या करने वाली है। मैंने सहज भाव से पूछ ही लिया कि बेटा, थोड़े दिनों बाद फादर्स डे आने वाला है। तुम अपने फादर अर्थात मेरे लिये क्या करने वाली हो? वह मेरा सवाल सुनकर मुस्करायी और मेरे सामान्य ज्ञान को बढ़ाते हुये कहा कि हां, पापा मुझे पता है कि फादर्स डे आने वाला है। अच्छा आप बताओ कि आप मेरे लिये क्या करने वाले हो? मैंने कहा कि दिन तो मेरा है, फिर मैं क्यों तु हारे लिये कुछ करने लगा। तु हें मेरे लिये करना चाहिये? इसके बाद हम बाप-बेटी के बीच जो संवाद हुआ, वह एक दार्शनिक संवाद  जरूर था लेकिन डे मनाने वालों के लिये सीख भी है। बेटी ने कहा कि पहली बात तो यह कि मैं अभी आपकी इनकम पर अपना भविष्य बना रही हूं और जो कुछ भी करूंगी आपके जेब से निकाल कर ही करूंगी। ऐसे में आपके लिये कुछ करने का मतलब आपको खुश करने के बजाय दुखी करना होगा क्योंकि जितने पैसों से मैं आपके लिये उपहार खरीदूंगी, उतने में आप हमारी कुछ जरूरतें पूरी कर सकेंगे। तो इसका मतलब यह है कि जब तुम कमाने लगोगी तो फादर्स डे सेलिब्रेट करोगी। अपने पापा के लिये उपहार खरीदोगी? इस बार भी बिटिया का जवाब अलग ही था। नहीं पापा, मैं चाहे जितनी बड़ी हो जाऊं, जितना कमाने लगूं लेकिन कभी इतनी बड़ी न हो पाऊं कि अपने पापा को उपहार देने की मेरी हैसियत बने। जिस पापा ने अपनी नींद खोकर मेरी परिवरिश की, जिस पापा ने अपनी जरूरतों को कम कर मेरी जरूरतों को पूरा करने में पूरा समय और श्रम लगा दिया, जिस पापा ने मेरे सपनों को अपना सपना मानकर मुझे बड़ा किया, उस पापा को भला मैं क्या दे सकती हूं। और पापा ही क्यों, मम्मी, दादाजी, दादीजी सब तो मिलकर मुझे बनाने की कोशिश कर, फिर भला मैं कैसे आप लोगों के लियेे उपहार खरीदने की हि मत कर सकती हूं। 
बिटिया की बातों को सुनकर मेरी आंखें भर आयी। मुझे लगा कि मैंने जो कुछ किया, वह निरर्थक नहीं गया। बेटी के भीतर वह सबकुछ मैंने समाहित कर दिया, जो मुझे मेरे पिता से मिला था। मुझे लगा कि फादर्स डे पर इससे अच्छा कोई उपहार हो भी नहीं सकता है। जब मां-बाप अपने बच्चों से हारते  हैं तो सही मायने में विजेता होते हैं। हारते हुयेे माता-पिता को सही मायने में खुशी मिलती है क्योंकि बच्चों की जीत ही माता-पिता की असली जीत है। हमारे समाज में ये जो डे मनाने का रिवाज चल पड़ा है और यह रिवाज भारतीय नहीं बल्कि यूरोपियन देशों की देन है। भौतिक जरूरतों की चीजों में उनके रिश्ते बंधे होते हैं और वे हर रिश्तों को वस्तु से तौलते हैं लेकिन भारतीय मन भावनाओं की डोर से बंधा होता है। वस्तु हमारे लिये द्वितीयक है, प्रथम भावना होती है और आज मेरी बेटी ने जता दिया कि वह जमाने के साथ भाग रही है्र दौड़ रही है लेकिन अपनी संस्कृति और संस्कार को सहेजे हुये। अपनी भावनाओं के साथ, अपने परिजनों की भावनओं की कद्र करते हुये। वह बाजार जाकर कुछ सौ रुपयों के तोहफों से भावनाओं का व्यापार नहीं कर रही है। यह मेरे जैसे पिछड़ी सोच के बाप के लिये अनमोल उपहार है। 
भारतीय समाज में भी डे मनाने की पुरातन पर परा है। हम लोग यूरोपियन की तरह जीवित लोगों के लिये डे का आयोजन नहीं करते हैं बल्कि उनके हमारे साथ नहीं रहने पर करते हैं। उनकी मृत्यु की तिथि पर उनके पसंद का भोजन गरीबों को खिलाया जाता है, वस्त्र इत्यादि गरीबों में वितरित किया जाकर उनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिये करते हैं, इसे हम पितृपक्ष कहते हैं। जीते जी हम उन्हें भरपूर स मान देते हैं और मरणोपरांत भी उनका स्थान हमारे घर-परिवार के बीच में होता है। दुर्भाग्य से हम यूरोपियन संस्कृति के साथ चल पड़ हैं। सक्षम पिता या माता का डे तो मनाते हैं लेकिन वृद्ध होते माता-पिता को वृद्वाश्रम पहुंचाने में देर नहीं करते हैं। बाजार जिस तरह अनुपयोगी चीजों का सेल लगाता है या चलन से बाहर कर देता है, वही हालत यूरोपियन समाज में रिश्तों का है, भावनाओं का है। हम भी इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। पालकों के पास धन है, साधन है, सक्षम हैं तो दिवस है और नहीं तो उनके लिये दिल तो क्या घर पर स्थान नहीं है। मेरी गुजारिश है उन बच्चों माता-पिता को बाजार की वस्तु बनाने के बजाय उन्हें अपना स्नेह दें। उनकी भावनाओं का खयाल रखें और एक दिन फादर्स डे, मदर्स डे के बजाय पूरे साल का हर दिन उनके लिये समर्पित करें। यही हमारी पर परा और संस्कृति है और यही भारतीय समाज की धरोहर भी। 

Sunday, July 28, 2013

भाव भरी भूमि
-मनोज कुमार
अभी बीते 23 जुलाई को अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की पुण्यभूमि पर जाने का मुझे अवसर मिला. यह दिन मेरे लिये किसी उत्सव से कम नहीं था. कभी इस पुण्यभूमि को भाबरा के नाम से पुकारा जाता था किन्तु अब इस नगर की पहचान अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के रूप में है. मध्यप्रदेश शासन के आदिमजाति कल्याण विभाग के सहयोग से राज्य के आदिवासी बाहुल्य जिलों में सामुदायिक रेडियो केन्द्रों की स्थापना की पहली कड़ी में यहां दो वर्ष पहले रेडियो वन्या की स्थापना हुई. 23 जुलाई को रेडियो वन्या के दूसरी सालगिरह पर मैं बतौर रेडियो के राज्य समन्वयक के नाते पहुंचा था. मैं पहली दफा इस पुण्य धरा पर आया था. इस धरा पर अपना पहला कदम रखते ही जैसे मेरे भीतर एक कंपन सी हुई. कुछ ऐसा मन में लगा जिसे अभिव्यक्त कर पाना मुश्किल सा लग रहा है. एक अपराध बोध भी मेरे मन को घर कर गया था. भोपाल से जिस वाहन से हम चंद्रशेखर आजाद नगर पहुंचे थे, उसी वाहन में बैठकर मैं और मेरे कुछ साथी आजाद की कुटिया की तरफ रवाना हुये. कुछ पल बाद ही मेरे मन में आया कि मैं कोई अनैतिक काम कर रहा हूं. उस वीर की भूमि पर मैं कार में सवार होकर उसी तरह चल रहा हूं जिस तरह कभी अंग्रेज चला करते थे. मन ग्लानि से भर गया और तत्काल अपनी भूल सुधार कर वाहन से नीचे उतर गया. वाहन से नीचे उतरते ही जैसेे मन हल्का हो गया. क्षणिक रूप से भूल तो सुधार लिया लेकिन एक टीस मन में शायद ताउम्र बनी रहेगी.
बहरहाल, मेेरे रेडियो स्टेशन पर कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद लगभग हजार विद्यार्थियों की बड़ी रैली अमर शहीद चंद्रशेखर की जयकारा करते हुये निकली तो मन खुश हो गया. परम्परा को आगे बढ़ाते देखना है तो आपको चंद्रशेखर नगर जरूर आना होगा. वीर शहीद की कुटिया को सरकार की तरफ से सुंदर बना दिया गया है. इस कुटिया में मध्यप्रदेश स्वराज संस्थान संचालनालय की ओर उनकी पुरानी तस्वीरों का सुंदर संयोजन किया गया है. इस कुटिया में प्रवेश करने से पूर्व ही एक अम्मां मिलेंगी जो बिना किसी स्वार्थ कुटिया की रखवाली करती हैं, जैसे वे अपने देश को अंग्रेजों से बचा रही हों. इस कुटिया के भीतर वीर शहीद चंद्रशेखर आजाद की आदमकद प्रतिमा है जिसे देखते ही लगता है कि वे बोल पड़ेंगे हम आजाद थे, आजाद रहेेंगे. सब-कुछ किसी फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने से गुजरती हुई प्रतीत होता है. जब मैं प्रतिमा निहार रहा था तभी एक लगभग 30-35 बरस का युवा अपनी छोटी सी बिटिया को लेकर कुटिया में आया और बिना समय गंवाये नन्हीं बच्ची को गोद में उठाकर उसे इतना ऊपर उठाया कि बिटिया शहीद का तिलक कर सके. उसने यही नहीं किया बल्कि बिटिया को शहीद के पैरों पर ढोक लगाने के लिये प्रेरित किया. नन्हीं सी बच्ची को शहीद और भगवान में अंतर नहीं मालूम हो लेकिन एक पिता के नाते उस युवक की जिम्मेदारी देखकर मन भाव से भर गया. 
एकाएक मन में आया कि काश, भारत आज भी गांवों का देश होता तो अभाव भले ही उसे घेरे होते किन्तु भाव तो नहीं मरते. बिलकुल जैसा कि मैंने चंद्रशेखर आजाद की नगरी में देखा. विकास के दौड़ में हम अपना गौरवशाली अतीत को विस्मृत कर रहे हैं लेकिन यह छोटा सा कस्बानुमा आज भी उस गौरवशाली इतिहास को परम्परा के रूप में आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित कर रहा है. परम्परा के संवर्धन एवं संरक्षण की यह कोशिश ही सही मायने में भारत की तस्वीर है. मैं यह बात बड़े गौरव के साथ कह सकता हूं कि देश का ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में जितना बड़ा योगदान दिया और इनके शहीदों को जिस तरह समाज ने सहेजा है, वह बिराला ही उदाहरण है. यह वही चीज है जिसे हम भारत की अस्मिता कहते हैं, यह वही चीज है जिससे भारत की दुनिया में पहचान है और शायद यही कारण है कि तमाम तरह की विसंगितयां, विश्व वक्रदृष्टि के बावजूद भारत बल से बलवान बना हुआ है.
दुख इस बात है कि विकास की अंधी दौड़ से अब चंद्रशेखर आजाद नगर भी नहीं बचा है. मकान, दुकान पसरते जा रहे हैं. वीर शहीद के नाम पर राजनीति अब आम हो रही है. हालांकि इसे यह सोच कर उबरा जा सकता है कि विकास होगा तो यह लालच बढ़ेगा और लालच बढ़ेगा तो विसंगतियांं आम होंगी लेकिन यह बात भी दिल को सुकून देेने वाली हैं कि चंद्रशेखर आजाद की नगरी में 23 जुलाई का दिन हर वर्ष दीपावली से भी बड़े उत्सव की तरह मनाया जाता है. अमर शहीद चंद्रशेखर को मेरा कोटिश: प्रणाम.